वह 31 मई की रात थी, 31 मई 2012 तब बिहार में सुशासन की परिभाषा धीरे-धीरे अपना आकार ले रही थी, यही कारण था कि लोग बिजली पर कम और खुले आसमान के नीचे सोने में ज्यादा यकीन करते थे ताकि अगले दिन फिर से काम धंधे या फिर नौकरी पर जा सकें. आम दिनों की तरह ही मैं अपने कतीरा स्थित आवास के छत पर सोया था. 31 मई की रात गर्मी ऐसी थी कि मानो बदन का पूरा पानी बिस्तर पर आ चुका हो लेकिन नींद पूरी करने की जद्दोजहद के बीच सुबह तब हुई जब अहले सुबह टहल कर लौटते हुए पापा ने मोबाइल पर फोन कर बताया कि ‘बेटा मुखिया जी नहीं रहे’ तब एंड्रॉयड फोन का जमाना नहीं हुआ करता था यही कारण था कि सीडीएमए को भी लोग सीने से लगाकर रखते थे..क्या पता किस काल कौन सा कॉल और मैसेज आ जाए. तब मैं पत्रकारिता की पौधशाला में अंकुर होकर लिखना लगभग जान चुका था. जैसे ही मुखिया जी की हत्या की खबर मिली पड़ोसी और पत्रकार दोनों होने के नाते मैं पांव में बिन चप्पल पहने ही अपने घर से 50 गज की दूरी पर स्थित मुखिया जी की गली की ओर दौड़ गया.



मेरे से पहले वहां दो-तीन लोग मौजूद थे साथ ही सामने पड़ी थी 6 फुट से भी ज्यादा लंबे एक इंसान की लाश जो कि गमछानुमा कफन से ढकी पड़ी थी. संयोग से सामने बैठा बंदा मोहल्ला का होने के नाते मेरा जान पहचान का था तो मैंने उसी समय अपने हाथों से कफन को उठाया और तत्क्षण एक तस्वीर अपने मोबाइल के इनबिल्ट कैमरे से कैद कर ली.. तब अचेत हो चुके मुखिया जी के बदन से खून रिस रहा था मानो जख्म कह रहे हों कि अंतिम सांस तक लड़ा हूं मैं इस हाड़-मांस के पुतले के लिए..इसके बाद तो लगा कि जैसे पूरे शहर में जंगल वाली आग लग गई हो जिसे खबर मिली वह दौड़ा भागा चलाया तब मैं राष्ट्रीय सहारा में बतौर आरा संवाददाता लिखा करता था. मैंने बिना देर गवाएं इसकी सूचना अपने ब्यूरो प्रभारी सह बड़े भाई भीम सिंह भवेश समेत फोटोग्राफर समीर अख्तर और प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों को दी. क्योंकि मैं मुखिया जी का पड़ोसी भी था इस नाते किसी ने मेरी सूचना पर बिना शक और देर किए घटनास्थल पर पहुंचना ही मुनासिब समझा. धीरे-धीरे आधे घंटे के दौरान ही मोहल्ले के आने जाने वाले लोग समेत नवादा थाना पुलिस की भी एक टीम घटनास्थल पर पहुंच चुकी थी. तब शायद ही किसी को एहसास था कि आने वाले अगले 36 घंटे पूरे बिहार को हिला कर रख देने वाले हैं क्योंकि मुखिया जी का आवास आरा-बक्सर को जाने वाले मुख्य मार्ग पर है, ऐसे में वहां पर लोगों की उपस्थिति के कारण गाड़ियों का जाम लग गया जिसे खबर मिली की मुखिया जी की हत्या कर दी गई वह दौड़ा भागा चला आया तब कतीरा के आस पास तकरीबन 100 से अधिक कोचिंग संस्थान हुआ करते थे जिनमें एक बैच में हजारों की संख्या में छात्र पढ़ा करते थे. अब दिन के 9:00 या 10:00 बजे चुके थे और मुखिया जी के आवास यानी कतीरा की ओर हो चुका था तब लोग सिर्फ इस उद्देश्य से आ रहे थे कि मुखिया जी आखिर दिखते कैसे थे, उनकी हत्या कैसे हुई,जैसे ही यह खबर सुदूरवर्ती इलाकों समेत देहात में पहुंची जहां रणवीर सेना और माले के बीच प्रतिशोध की ज्वाला ठंडी जरूर पड़ी थी लेकिन बुझी नहीं थी मानो एक बार फिर से जातीय संघर्ष का गुब्बारा फूट गया महज 2 घंटे के अंदर भोजपुर समेत पटना, बक्सर और अरवल जिला से सैकड़ों की संख्या में मुखिया जी के समर्थक उनके कतिरा स्थित आवास पर आने लगे मामले की संगीनता और भयावहता का अंदाजा शायद पुलिस को हो चुका था तभी खुद तत्कालीन एसपी एमआर नायक अपने दल बल के साथ कतीरा स्थित आवास के लिए निकल चुके थे लेकिन लाश को उठाने की उनकी मंशा असफल ही साबित हुई अब धीरे-धीरे लोगों का आक्रोश बढ़ता जा रहा था और भीड़ एक तरह से उन्माद और हिंसा के लिए तैयार होने लगी थी। तब संदेश के विधायक संजय सिंह टाइगर समेत विभिन्न दलों के नेता और जेडीयू के विधायक सुनील पांडे समेत कुछ अन्य सफेदपोश मुखिया जी के आवास की ओर बढ़ रहे थे और यूं कहे कि कुछ लोग आ भी चुके थे इसी दौरान भीड़ में से एक आवाज आई कि ‘मारो नेता सब को सबसे पहले मारकर भगाओ’, इतना कहना मात्र था कि फिर जिसके हाथ में जो लगा शुरू हो गया।
मुखिया जी के निकटतम पड़ोसी प्रोफ़ेसर बलिराम शर्मा के अहाते में बैठे सुनील पांडे के साथ बदसलूकी हुई तो संजय टाइगर, को भीड़ ने उल्टे पांव रोड़ेबाजी कर खदेड़ दिया गया..तब उनकी सुरक्षा में लगा एक कार्बाइन धारी जवान पड़ा सब पत्थर लगने से मानो अचेत सा हो गया भीड़ अब पूरी तरह से शहर को अपने आगोश में लेना चाहती थी लेकिन अगर ऐसे माहौल में किसी की नहीं चल रही थी तो वह थी भोजपुर पुलिस। दिन चढ़ने के साथ ही लोगों का आक्रोश और गर्मी दोनों अपने चरम की ओर बढ़ रहे थे सबसे पहले भीड़ ने आरा पटना और बक्सर जाने वाले मुख्य मार्ग को जाम कर दिया साथ ही कतीरा मोड़ जो कि शहर की हृदय स्थली कहीं जाती है को भी अपना निशाना बनाया..दूध के टैंकर जला दिए गए तो कई गाड़ियां पलट दी गईं..लगे हाथों कुछ उन्मादी कतिरा स्थित अनुसूचित जाति-जनजाति आवास में जा घुसे और हॉस्टल को अपने कब्जे में ले लिया..भीड़ चौतरफा हिंसा कर रही थी, तब सरकारी यात्रा पर निकले नीतीश कुमार के प्रस्तावित यात्रा को लेकर आरा के सर्किट हाउस को दुल्हन की तरह सजाया गया था जो पल भर में आग की लपटों और काले धुएं से धू-धू कर जलने लगा..जिले में पदस्थापित सीओ और सीडीपीओ को देने के लिए टाटा स्पेसियो का काफिला शिक्षा परियोजना और ब्लॉक के अहाते में खड़ा था वो जला दिया गया..स्टेशन का इंक्वायरी हो या प्लेटफार्म उन्मादियों से भर चुका था जिधर देखो आग ही आग और जहां सुनो पुलिस की सायरन..एसपी एमआर नायक से बदसलूकी करने वाली भीड़ डीजीपी अभयानंद को बुलाने पर अड़ी थी. दोपहर होते-होते ये खबर नेशनल ही नहीं इंटरनेशनल मीडिया की सुर्खियां बन चुकी थी और आरा की धरती टेलीविजन चैनल्स के लिए टीआरपी उत्पादकत धरती..तब भीड़ के आगे पुलिस बेबस होकर समझदार बन रही थी फिर भी डीजीपी अभयानंद जैसे अधिकारी के गिरेबां तक हाथ जा पहुंचे, दरअसल भीड़ उन्मादी होती है और लक्ष्यविहीन इसकी बानगी साक्षात मैं अपनी आंखों से देख रहा था साथ ही पत्रकारिता के पौध के रूप में बहुत कुछ सीख भी रहा था, मुखिया जी की हत्या के उपरांत पल ऐसे बीता की शाम के 3 बजे तक का वक्त हो चला, चुकी अखबार के सभी एडिशन में खबर जानी थी तो ब्यूरो चीफ भीम सिंह भवेश जी के निर्देशन में उन सारे पहलुओं और तथ्य को हमने अपने सीनियर कृष्ण कुमार के साथ मिलकर अखबार में वही लिखा जो देखा था. इसके बाद यानी 2 जून को जो उत्पात हुआ उसका साक्षी न केवल पटना बल्कि बिहार का हर वो शख्स बना जिसने टीवी स्क्रीन पर अपनी नजरें जमाकर रखी थी. कई घंटे पटना में उपद्रव, आगजनी और मारपीट जैसी घटनाएं होती रहीं, तब तक जब तक की मुखिया जी को उनके पुत्र ने मुखाग्नि न दी..देखते-देखते दशक यानी 10 साल बीत गए लेकिन अफसोस की मुखिया के कातिल और उनके विचारों को अमली जामा पहनाने वाले लोग, दोनों आज भी अदृश्य हैं..
अमरेंद्र कुमार, लेखक बिहार के जानेमाने सीनियर पत्रकार है और न्यूज़-18 पटना में कार्यरत है।