नेपाल जो आज तक भारत का एक अच्छा दोस्त हुआ करता था वो आज लड़ने पर उतारू क्यों हो गया है. ऐसी क्या गंभीर बात हो गई जिसने दशकों पुरानी दोस्ती में दरार पैदा कर दी है. इसको आप बड़े ही आसानी से समझ सकते हैं.
ये बात है अंग्रेजों के जमाने की जब मुगलों के शासन के बाद गोरखा सैनिकों के बल पर नेपाल एक ताकतवर देश बन गया था तो उसने भारत के कई हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया था. जिसमें भारत का सिक्किम और उत्तराखंड और यूपी से लगे तराई क्षेत्रों पर नेपाल ने कब्ज़ा कर लिया था. इसके बाद नेपाल की सीमा काफी बड़ी हो गई. नेपाल के इस बर्ताव को देख कर अंग्रेजों ने नेपाल से युद्ध छेड़ दिया.
ये युद्ध हुआ 1814 से लेकर 1816 के बीच, इसी को एंग्लोनेपाल युद्ध कहा जाता है. नेपाल ने भी अपने गोरखाओं के साथ लड़ा मगर अंग्रेजों के पास अच्छे और बड़ी संख्या में हथियार थे जिसके आगे नेपाल को अपने घुटने टेकने पड़े और अंत में अंग्रेजों की जीत हो गई. तभी 1816 में एक संधि पर हस्ताक्षर हुई इस संधि का नाम पड़ा सुगौली की संधि. अब आप सोच रहे होंगे की सुगौली ही नाम क्यों, वो इसलिए क्युकी सुगौली बिहार के चंपारण में पड़ता है और यहीं पर अंग्रेजों और नेपाल के बीच हस्ताक्षर हुए थे. तभी इसका नाम पड़ा सुगौली की संधि.
इस संधि में कहा गया था कि नेपाल ने जो भारत के क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया है उसे वापस करे. और नेपाल को वो सभी कब्जे वाले क्षेत्र वापस करने पड़े. फिर अंग्रेजों ने नेपाल की सीमा को सीमित कर दिया. अंग्रेजों के कहा कि उत्तराखंड की सारदा नदी से लेकर सिक्किम के पास मेची नदी तक ही नेपाल का बॉर्डर होगा. जिसपर नेपाल भी राजी हो गया.
जब नेपाल सुगौली की संधि से राजी था तो अब भारत की सीमा पर विवाद क्यों खड़ा हुआ है. इसको समझिये- दरअसल भारत के सिक्किम में एक नाथुला दर्रा है जहाँ से हम सभी कैलाशमानसरोवर की यात्रा पर जाते हैं. तो सिक्किम के रस्ते कैलाशमानसरोवर की यात्रा काफी लंबी पड़ती है. और देखा जाए तो उत्तराखंड से कैलाशमानसरोवर की दूरी कुछ भी नहीं है. तो भारत ने सोचा की क्यों न हम अपने श्रद्धालुओं को उत्तराखंड के रास्ते ही कैलाशमानसरोवर पहुंचा दें. इससे फालतू का खर्च भी बचेगा और समय भी.



अभी हाल ही में भारत ने उत्तराखंड के कालापानी से लिपुलेख तक सड़क निर्माण किया है. रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इसका उद्घाटन भी किया था. इसके बाद ही नेपाल की सरकार ने इस पर विरोध जता दिया और कहा की नई भैया ये तो मेरा इलाका है आप यहाँ सड़क नई बना सकते हैं.
दरअसल लिपुलेख जो है वो तीनों देशो भारत, चीन और नेपाल के बॉर्डर पर है. और उत्तराखंड की सारदा नदी जिसे नेपाल महाकाली नदी कहता है वो तीन नदियों से मिल पर उद्गम हुई है. पहली लिम्पियाधुरा दूसरी कालापानी और तीसरी लिपुलेख. सुगौली की संधि के हिसाब से लिपुलेख नदी के उधर का पूरा एरिया नेपाल का है और इधर का पूरा एरिया जिसमें तीनों नदियां शामिल हैं वो भारत में आती हैं.
लेकिन भारत के सड़क बनाते ही अब नेपाल कह रहा है की ये लिपुलेख मेरा एरिया है. उसका कहना है की तीनों नदियां लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख एक ही नदी महाकाली नदी है. और लिम्पियाधुरा के बाद से पूरा एरिया मेरा है. जिसके बाद नेपाल की सरकार ने विरोध जताते हुए 18 मई को नया मानचित्र जारी किया था. जिसमें उसने अपने नए नक़्शे में उत्तराखंड की तीनों नदियां दिखाई हैं.



हालाँकि इस मुद्दे पर नेपाल में भी सभी पार्टियों की सहमति नहीं बन पाई है. नेपाल की ज्यादातर पार्टियां भी इसको गलत बता रही हैं. लेकिन नेपाल अपने संविधान में संशोधन करना चाहता है. नेपाल की सरकार को संविधान में संशोधन के लिए दो-तिहाई वोट की जरूरत है. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को निचले सदन से प्रस्ताव पास कराने के लिए 10 सीटों की जरूरत है। इसलिए सरकार को दूसरी पार्टियों को भी मनाना पड़ रहा है.
अब आप समझ गए होंगे की विवाद सिर्फ तीनों नदियों लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख का है. दरअसल नेपाल में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी है. और ये चायना की विचारधारा से मैच करती है. और प्रधान मंत्री केपी शर्मा ओली के चाइना से अच्छे संबंध भी हैं. और इसमें कोई शक नहीं है की नेपाल चाइना के कहे मुताबिक ही काम कर रहा है. भारत के सेना प्रमुख एमएम नरवणे ने भी कहा है कि नेपाल ने ऐसा किसी और (चीन) के कहने पर किया है.