सहरसा (बिहार) | पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के भीतर बसे लाखों लोगों के इलाज के लिए करोड़ों की लागत से बना चन्द्रायण रेफरल अस्पताल शुरू होने से पहले ज़मीनदोज हो रहा है। करीब 14 करोड़ की लागत से बने इस अस्पताल का तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने 1995 में उदघाटन किया था जिसमे आजतक इस अस्पताल में ना तो कभी कोई चिकित्सक और चिकित्साकर्मी आये और ना ही एक भी मरीज का यहाँ इलाज ही हो सका है। मुरघती सन्नाटे के बीच घने जंगलों में छुपा बेमकसद साबित हुआ यह अस्पताल आज भूत बंगले में है तब्दील हो गया है। अब कोरोना काल में सिर्फ खानापूर्ति के लिए एक एएनएम व एक स्वास्थ्य कर्मी के भरोसे छोड़ दिया गया इस भुत बंगले में तब्दील रेफेरल अस्पताल को सरकारी बदइन्तजामी,लापरवाही और धन के दुरूपयोग का बेजोड़ नमूना माना जा सकता है।



बदइन्तजामी,लापरवाही और सरकारी धन के बेजाए दुरूपयोग का नजारा देखना हो तो आप सहरसा चले आईये। यहाँ एक नहीं थोक में कई ऐसे नज़ारे मिलेंगे जो आपको ना केवल हैरान और परेशान करेंगे बल्कि सरकार के कामकाज के तरीकों में अल्प ज्ञान के बड़े-बड़े कितने सुराख हैं वह भी नजर आयेंगे । पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के भीतर बसे सहरसा और सुपौल जिले के करीब 15 लाख की आबादी के लिए आवागमन का एक मात्र साधन नाव है। लोगों के लिए इस पार से उसपार जाने में घंटों के वक्त लगते हैं। ऐसे में सबसे बड़ी मुसीबत उनलोगों को होती है जो बीमार हैं और जिन्हें तुरंत स्वास्थ्य सुविधा की जरुरत है। कोसी के इस इलाके के लोग अक्सर समय पर इलाज नहीं होने की वजह से काल-कलवित होते रहे हैं।



एक तो नाव पर मुश्किल भरी यात्रा फिर मरीजों को दूर-दराज इलाके में ले जाने के लिए सवारी की कमी। ऐसे में इस इलाके के मरीजों को बचाने की गरज से करीब 14 करोड़ की लागत से नवहट्टा प्रखंड के चन्द्रायण स्थित पूर्वी तटबंध के किनारे पर रेफरल अस्पताल का निर्माण कराया गया। करीब सात एकड़ भूखंड पर पसरे इस अस्पताल के लिए आलिशान भवन ना केवल बनकर तैयार भी हुए बल्कि इस अस्पताल के लिए लाखों के चिकित्सीय अत्याधुनिक उपकरण भी मंगाए गए। बड़े ताम-झाम और गाजे-बाजे के साथ 18 सितम्बर 1995 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने स्वास्थ्य मंत्री महावीर प्रसाद और क्षेत्रीय विधायक अब्दुल गफूर की मौजूदगी में इस अस्पताल का विधिवत उदघाटन भी किया। इलाके के लोगों की बांछें खिल उठी थी की अब उनके घर के बुजुर्ग,महिलायें और घर का चिराग असमय दुनिया को अलविदा नहीं कहेगा। लेकिन नियति को यह शायद मंजूर ही नहीं था। 19 सितम्बर 1995 को इस अस्पताल में यह कहकर ताले जड़े गए की यहाँ पर एक सप्ताह के बाद डॉक्टर और चिकित्साकर्मी आयेंगे लेकिन आजतक इस अस्पताल में वह समय नहीं आया जब इसके जंग खाए ताले खुलते। बन्द पड़े ताले आज भी उसी तरह इस अस्पताल में जड़े हुए हैं।



इस अस्पताल में कभी कोई ना तो डॉक्टर ही बैठे और ना ही कोई स्वास्थ्यकर्मी ही यहाँ आया। लम्बे समय तक डॉक्टर और चिकित्साकर्मी की बाट जोहते-जोहते अब यह संज्ञा भर का अस्पताल ना केवल भूत बंगले में तब्दील है बल्कि खंडहर होकर जमींदोज होने के कगार पर भी है। कोरोना काल में सिर्फ खानापूर्ति के लिए इस भुत बंगले में तब्दील रेफरल अस्पताल को एक एएनएम व एक स्वास्थ्य कर्मी के भरोसे छोड़ दिया गया है। बताते चले कि सरकारी पेंच में फंसकर यह अस्पताल करोड़ों की सरकारी राशि को बर्बाद कर दम तोड़ गया । इलाके के लोगों ने कभी यह अस्पताल अपने अस्तित्व में आएगा की अब उम्मीद भी छोड़ चुके हैं।